हक़ीक़त उन्हें जब बताने लगे
सभी लोग उठ करके जाने लगे
बसाने में जिसको ज़माना लगा
मिरा शहर क्यूं वो जलाने लगे
जिसे घर की लक्ष्मी बताया गया
निलामी उसी की कराने लगे
थी नफ़रत दिलों में हमारे लिए
मिरे शव पे आंसू बहाने लगे
बुरे वक़्त में काम आए नहीं
मुझे अपने भी सब बेगाने लगे
हवा में घुला ज़ह्र क्या खुद से ही
घुला है ये जब कारखाने लगे
था मालूम उनको नहीं क्या है ये
थे भूखे जो माहुर भी खाने लगे
लगा टूटने हौसला जब कभी
अज़ल की ग़ज़ल गुनगुनाने लगे
उजाले में "दीपक" की रातें कटी
हुई सुब्ह उसको बुझाने लगे
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