Qaisar Siddiqi

Qaisar Siddiqi

@qaisar-siddiqi

Qaisar Siddiqi shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Qaisar Siddiqi's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
  • Nazm
सितारे जब किसी महताब का क़िस्सा सुनाते हैं
मिरे ख़्वाबों के आँगन में उजाले मुस्कुराते हैं

हक़ीक़त सामने लाने से जब दामन बचाते हैं
तो गिर कर आइने हाथों से ख़ुद ही टूट जाते हैं

हमें तो मुस्कुराने के सिवा कुछ भी नहीं आता
हुजूम-ए-ग़म में भी हम लोग यूँ ही मुस्कुराते हैं

चलो ऐ बादा-ख़्वारो चल के उन की ख़ैरियत पूछें
सुना है शैख़ साहब मय-कदे में पाए जाते हैं

मोहब्बत में नदामत के सिवा कुछ भी नहीं पाया
मगर फिर भी मोहब्बत से कहाँ हम बाज़ आते हैं

तुम ही रूठे हुए हो जब हमारे दिल की दुनिया से
चलो फिर हम भी अपनी ज़िंदगी से रूठ जाते हैं

यही है फ़र्क़ ज़ाहिद और आशिक़ की इबादत में
ये अपना सर झुकाता है वो अपना दिल झुकाते हैं

मिरी उम्मीद अक्सर चाहती है सुर्ख़-रू होना
मगर हालात अक्सर मुझ को आईना दिखाते हैं
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Qaisar Siddiqi
न तर्ज़-ए-ख़ास न अंदाज़-ए-गुल-फ़िशाँ ले कर
पुकारता हूँ मैं तुझ को तिरी ज़बाँ ले कर

तमाम हुस्न-ए-तमन्ना धुआँ धुआँ ले कर
निगाह बुझ ही गई रात का समाँ ले कर

मिरी बहार-ए-तमन्ना को जावेदाँ कर दे
मैं क्या करूँगा भला उम्र-ए-राएगाँ ले कर

तुम्हारे बज़्म का दस्तूर चाहे जो भी हो
तुम्हारी बज़्म में आया हूँ मैं ज़बाँ ले कर

अब और कितना तमाशा बनाएगी क़िस्मत
फिरूँ मैं अपना जनाज़ा कहाँ कहाँ ले कर

मुझे ही रास न आई ये बद-नसीब ज़बाँ
तो क्या करोगे मियाँ तुम मिरी ज़बाँ ले कर

ये पस्तियों की लकीरें न छू सकेंगी मुझे
मैं घर से निकला हूँ आँखों में आसमाँ ले कर

सुहाग जिस की जुदाई में उजड़ा उजड़ा है
कभी तो लौटेगा सोने की चूड़ियाँ ले कर

तुम्हारा आइना कैसे न एहतिराम करे
मिरी ग़ज़ल भी तो आई है कहकशाँ ले कर

ख़िरद की रेशम-ओ-अतलस-नवाज़ महफ़िल में
जुनूँ चला है गरेबाँ की धज्जियाँ ले कर

मिज़ाज बच्चों के जैसा है अब भी 'क़ैसर' का
बहुत ही ख़ुश है वो काग़ज़ की तितलियाँ ले कर
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Qaisar Siddiqi
रौशनी सुब्ह की या शब की स्याही देंगे
जो भी देना है तुम्हें ज़िल्ल-ए-इलाही देंगे

शैख़ साहब तो अज़ल से हैं दुश्मन मेरे
खा के क़ुरआँ की क़सम झूटी गवाही देंगे

उन से रखिए न किसी मेहर-ओ-वफ़ा की उम्मीद
ये तो ऐसे हैं कि सूरज को स्याही देंगे

मौसम-ए-लुत्फ़-ए-अता है अभी मयख़ाने में
जाम क्या चीज़ है ये तुम को सुराही देंगे

तो हिक़ारत की नज़र से न उन्हें देख मियाँ
ये फटे कपड़े तुझे ख़िलअ'त-ए-शाही देंगे

ऐसा लगता है हवाओं के ये पागल झोंके
रेत पर लिक्खी इबारत को मिटा ही देंगे

इतनी मायूसी भी अच्छी नहीं खोटे सिक्को
इक न इक दिन तुम्हें हम लोग चला ही देंगे

करके ये फ़ैसला हम घर से चले हैं 'क़ैसर'
कुछ खरी खोटी तुम्हें आज सुना ही देंगे
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Qaisar Siddiqi
हमारे ज़ेहन में महशर बपा है क्या किया जाए
ये दिल आमादा-ए-तर्क-ए-वफ़ा है क्या किया जाए

मुसलसल बारिश-ए-संग-ए-सदा है क्या किया जाए
यही मेरी वफ़ाओं का सिला है क्या किया जाए

लबों तक आ के सब हर्फ़-ए-शिकायत टूट जाते हैं
अजब अंदाज़ से वो देखता है क्या किया जाए

बिछड़ कर आप से जीने की ख़्वाहिश कुफ़्र है लेकिन
हमारी ज़िंदगी ही बे-हया है क्या किया जाए

ये माना ख़्वाब है ऐ ज़ख़्म-ए-नौ तेरी ख़लिश लेकिन
यहाँ पहले ही इक मेला लगा है क्या किया जाए

हमेशा सोचते रहना भी कुछ अच्छा नहीं होता
मगर शाइ'र हमेशा सोचता है क्या किया जाए

वो इंसाँ जो मिरा हमराज़ है हम-ज़ाद है 'क़ैसर'
वो मुझ से आज तक ना-आश्ना है क्या किया जाए
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Qaisar Siddiqi
आलम-ए-बे-चेहरगी में कौन किस का आश्ना
आज का हर लफ़्ज़ है मफ़्हूम से ना-आश्ना

कौन होता है ज़माने में किसी का आश्ना
लोग होना चाहते हैं ख़ुद ज़माना-आश्ना

सोचता हूँ कौन सी मंज़िल है ये इदराक की
ज़र्रा ज़र्रा आश्ना है पत्ता पत्ता आश्ना

चाट जाती है जिन्हें सूरज की प्यासी रौशनी
काश हो जाएँ किसी दिन वो भी दरिया-आश्ना

तिश्नगी आई सराबों से गुज़र कर आब तक
साहिल-ए-दरिया मगर अब तक है सहरा-आश्ना

ज़ौक़-ए-ख़ुद-बीनी की तस्कीन-ए-अना के वास्ते
कितने ही ना-आश्नाओं को बनाया आश्ना

काश हो जाए तिरी आँखों पे ख़्वाबों का नुज़ूल
काश हो जाए तिरा दिल भी तमन्ना-आश्ना

कौन पहचानेगा हम को कौन पूछेगा मिज़ाज
कौन है अपने सिवा 'क़ैसर' हमारा आश्ना
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Qaisar Siddiqi
यूँ दिल-ए-दीवाना को अक्सर सज़ा देता हूँ मैं
अपनी बर्बादी पे ख़ुद ही मुस्कुरा देता हूँ मैं

अपने दिल के ख़ून से वो गुल खिला देता हूँ मैं
रेगज़ारों को गुलिस्ताँ की अदा देता हूँ मैं

ऐसी मंज़िल पर मुझे पहुँचा दिया है इश्क़ ने
मेरा जो क़ातिल है उस को भी दुआ देता हूँ मैं

क्यूँ किसी का नाम ले कर इश्क़ को रुस्वा करूँ
अपने दिल की आग को ख़ुद ही हवा देता हूँ मैं

ज़िक्र यूँ करता हूँ अपने ग़म का अपने दर्द का
होश वालों को भी दीवाना बना देता हूँ मैं

क्या गुज़रती है मिरे दिल पर ख़ुदारा कुछ न पूछ
दुश्मनों को जब तलक घर का पता देता हूँ मैं

अपनी ही आवाज़ ख़ुद लगती है मुझ को अजनबी
जब अकेले में कभी तुझ को सदा देता हूँ मैं

नश्तर-ए-याद-ए-ग़म-ए-जानाँ से 'क़ैसर' इन दिनों
ज़ख़्म जो सोते हैं उन को फिर जगा देता हूँ मैं
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