Ejaz Gul

Ejaz Gul

@ejaz-gul

Ejaz Gul shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Ejaz Gul's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
  • Nazm
इस्तादा है जब सामने दीवार कहूँ क्या
हासिल भी नहीं रौज़न-ए-दरकार कहूँ क्या

लगता तो है कुछ दीद को ना-दीद के पीछे
खुलता नहीं मंज़र कोई उस पार कहूँ क्या

हूँ तंग ज़रा जेब से ऐ हसरत-ए-अश्या
शामिल तो है फ़हरिस्त में बाज़ार कहूँ क्या

जिस बात के इंकार का हद-दर्जा गुमाँ है
वो बात यक़ीं के लिए सौ बार कहूँ क्या

मैं उन के जवाबात से और अहल-ए-ज़माना
हैं मेरे सवालात से बेज़ार कहूँ क्या

जिस बात पे थी बहस हुई बहस से ख़ारिज
अब रह गई आपस में है तकरार कहूँ क्या

हम-साए की हम-साए से पहचान नहीं है
पैवस्त है दीवार में दीवार कहूँ क्या

ग़ाफ़िल नहीं ऐसा भी मैं अब अपनी रसद से
इस दिल में तलब का है जो अम्बार कहूँ क्या

गुलज़ार सा खिल उठता है ख़ुश्बू-ए-सुख़न से
जादू है वो इस का दम-ए-गुफ़्तार कहूँ क्या

है रंग बदन का लुग़त-ए-रंग में नापैद
ला-सानी है क़ामत में क़द-ए-यार कहूँ क्या
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Ejaz Gul
मंज़र-ए-वक़्त की यकसानी में बैठा हुआ हूँ
रात दिन एक सी वीरानी में बैठा हुआ हूँ

कोई सामान-ए-सफ़र है न मसाफ़त दर-पेश
मुतमइन बे-सर-ओ-सामानी में बैठा हुआ हूँ

कभी नायाफ़्त का है तो कभी कम-याफ़्त का ग़म
वज्ह-बे-वज्ह परेशानी में बैठा हुआ हूँ

कार-ए-दुश्वार है आग़ाज़ से मुंकिर जब तक
कार-ए-बे-कार की आसानी में बैठा हुआ हूँ

कल कहीं रफ़्ता में था हाल की हैरत का असीर
अब किसी फ़र्दा की हैरानी में बैठा हुआ हूँ

ख़ैर हम-ज़ाद मिरा दूर तमाशाई है
शर हूँ और फ़ितरत-ए-इंसानी में बैठा हुआ हूँ

जिस्म हूँ और नफ़स ठहरा है ज़ामिन मेरा
साअत-ए-उम्र की निगरानी में बैठा हुआ हूँ

एक बाज़ार-ए-तिलिस्मात है जिस के अंदर
जेब-ए-ख़ाली तिरी अर्ज़ानी में बैठा हुआ हूँ

रेग-ता-रेग हूँ फैला हुआ सहरा की तरह
और सराबों की फ़रावानी में बैठा हुआ हूँ

ऐसा सन्नाटा है आवाज़ से हौल आता है
इक बयाबाँ सा बयाबानी में बैठा हुआ हूँ

न मैं बिल्क़ीस कि हो शहर-ए-सबा की ख़्वाहिश
न ग़म-ए-तख़्त-ए-सुलैमानी में बैठा हुआ हूँ
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Ejaz Gul
नहीं शौक़-ए-ख़रीदारी में दौड़े जा रहा है
ये गाहक सैर-ए-बाज़ारी में दौड़े जा रहा है

मयस्सर कुछ नहीं है खेल में ला-हासिली के
यूँही बे-कार बेकारी में दौड़े जा रहा है

उठाए फिर रहा है कोतवाल-ए-उम्र चाबुक
बदन मजबूर लाचारी में दौड़े जा रहा है

खड़ी है मंफ़अत हैरान बाहर दाएरे से
ज़ियाँ अपनी ज़ियाँ-कारी में दौड़े जा रहा है

ठहरना भी कहाँ है सहल इन सय्यार्गां को
न साबित से ही सय्यारी में दौड़े जा रहा है

उतारा ख़्वाहिशों का है इज़ाफ़ी बोझ सर से
तो आसानी से दुश्वारी में दौड़े जा रहा है

नहीं हिम्मत कि जिस में हो ज़माने के मुक़ाबिल
वो अपने घर की रहदारी में दौड़े जा रहा है

नहीं मिलता मगर रौज़न कि निकले अक्स बाहर
पस-ए-आईना-ज़ंगारी में दौड़े जा रहा है

समेटा झूट की परकार ने है पेश-ओ-पस को
कि अब हर सच रिया-कारी में दौड़े जा रहा है

ख़बर है रुत बदलने की अगर रश्क-ए-सबा वो
ख़िराम-अंदाज़ गुलज़ारी में दौड़े जा रहा है
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Ejaz Gul
दर खोल के देखूँ ज़रा इदराक से बाहर
ये शोर सा कैसा है मिरी ख़ाक से बाहर

रूदाद-ए-गुज़िश्ता तो सुनी कूज़ा-गरी की
फ़र्दा का भी कर ज़िक्र जो है चाक से बाहर

ख़ुश आया अजब इश्क़ को ये जामा-ए-ज़ेबा
निकला नहीं फिर हिज्र की पोशाक से बाहर

चाहा था मफ़र दिल ने मगर ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर
पेचाक बनाती रही पेचाक से बाहर

आता नहीं कुछ याद कि ऐ साअत-ए-निस्याँ
क्या रक्खा तिरे ताक़ पे क्या ताक़ से बाहर

सुनता हूँ कहीं दूर से नक़्क़ारा सबा का
उतरी है बहार अब के भी ख़ाशाक से बाहर

कुछ देर ठहर और ज़रा देख तमाशा
नापैद हैं ये रौनक़ें इस ख़ाक से बाहर

मौजूद ख़ला में हैं अगर और ज़मीनें
अफ़्लाक भी होंगे कहीं अफ़्लाक से बाहर
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Ejaz Gul
इतना तिलिस्म याद के चक़माक़ में रहा
रौशन चराग़ दूर किसी ताक़ में रहा

मख़्फ़ी भी था विसाल का वो बाब-ए-मुख़्तसर
कुछ दिल भी महव हिज्र के अस्बाक़ में रहा

सहरा के इश्तिराक पे राज़ी थे सब फ़रीक़
महमिल का जो फ़साद था उश्शाक़ में रहा

मफ़क़ूद हो गया है सियाक़-ओ-सबाक़ से
जो हर्फ़-ए-उम्र सैकड़ों औराक़ में रहा

मैं था कि जिस के वास्ते पाबंद अहद-ए-हिज्र
वो और एक हिज्र के मीसाक़ में रहा

अतवार उस के देख के आता नहीं यक़ीं
इंसाँ सुना गया है कि आफ़ाक़ में रहा

ख़ुफ़्ता थे दाएँ बाएँ कई मार-ए-आस्तीं
ज़हराब का असर मिरे तिरयाक़ में रहा

तारीख़ ने पसंद किया भी किसी सबब
या बस कि शाह-ए-वक़्त था औराक़ में रहा
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Ejaz Gul
ये घूमता हुआ आईना अपना ठहरा के
ज़रा दिखा मिरा रफ़्ता तू चर्ख़ पल्टा के

है काएनात मुअम्मा जुदा तरीक़े का
फ़क़त सुलझता है आपस में गिर्हें उलझा के

नतीजा एक सा निकला दिमाग़ और दिल का
कि दोनों हार गए इम्तिहाँ में दुनिया के

मुसाफ़िरों से रहा है वो रास्ता आबाद
पलट के आए नहीं जिस से पेश-रौ जा के

ये हिज्र-ज़ाद समझता है कम विसाल की बात
बता जो रम्ज़-ओ-किनाया हैं ख़ूब फैला के

कि बंद रहता है शहर-ए-तलब का दरवाज़ा
यक़ीन आया मुझे बार बार जा आ के

ख़फ़ीफ़ हो के मैं चेहरे को फेर लेता हूँ
अगर गुज़रता है तुझ आश्ना सा कतरा के

जवाब मेरा ग़लत था सवाल उस का दुरुस्त
खुला ये मुझ पे किसी ना-समझ को समझा के
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Ejaz Gul
पेश-तर जुम्बिश-ए-लब बात से पहले क्या था
ज़ेहन में सिफ़्र की औक़ात से पहले क्या था

वसलत ओ हिजरत-ए-उश्शाक़ में क्या था अव्वल
नफ़ी थी ब'अद तो इसबात से पहले क्या था

कोई गर्दिश थी कि साकित थे ज़मीन ओ ख़ुर्शीद
गुम्बद-ए-वक़्त में दिन रात से पहले क्या था

मैं अगर पहला तमाशा था तमाशा-गह में
मश्ग़ला उस का मिरी ज़ात से पहले क्या था

कुछ वसीला तो रहा होगा शिकम-सेरी का
रिज़्क़-ए-ख़ुफ़्ता कि नबातात से पहले क्या था

मैं अगर आदम-ए-सानी हूँ तो विर्सा है कहाँ
ज़र्फ़-ए-अज्दाद में अम्वात से पहले क्या था

हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई था अगर
फिर ये हंगामा मुलाक़ात से पहले क्या था

मैं भी मग़्लूब था हाजात की कसरत से मगर
लुत्फ़ उस को भी मुनाजात से पहले क्या था
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Ejaz Gul
अक्स उभरा न था आईना-ए-दिल-दारी का
हिज्र ने खींच दिया दायरा ज़ंगारी का

नाज़ करता था तवालत पे कि वक़्त-ए-रुख़्सत
भेद साए पे खुला शाम की अय्यारी का

जिस क़दर ख़र्च किए साँस हुई अर्ज़ानी
निर्ख़ गिरता गया रस्म-ओ-रह-ए-बाज़ारी का

रात ने ख़्वाब से वाबस्ता रिफ़ाक़त के एवज़
रास्ता बंद रखा दिन की नुमूदारी का

ऐसा वीरान हुआ है कि ख़िज़ाँ रोती है
कल बहुत शोर था जिस बाग़ में गुल-कारी का

बे-सबब जम'अ तो करता नहीं तीर ओ तरकश
कुछ हदफ़ होगा ज़माने की सितमगारी का

पा-ब-ज़ंजीर किया था मुझे आसानी ने
मरहला हो न सका तय कभी दुश्वारी का

मुतमइन दिल है अजब भीड़ से ग़म-ख़्वारों की
सिलसिला तूल पकड़ ले न ये बीमारी का
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Ejaz Gul
ज़रा बतला ज़माँ क्या है मकाँ के उस तरफ़ क्या है
अगर ये सब गुमाँ है तो गुमाँ के उस तरफ़ क्या है

अगर पत्थर से बिखरे हैं तो आख़िर ये चमक कैसी
जो मख़्ज़न नूर का है कहकशाँ के उस तरफ़ क्या है

ये क्या रस्ता है आदम गामज़न है किस मसाफ़त में
नहीं मंज़िल तो फिर इस कारवाँ के उस तरफ़ क्या है

अजब पाताल है दरवाज़ा ओ दीवार से आरी
ज़मीं-अंदर-ज़मीं बे-निशाँ के उस तरफ़ क्या है

तह-ए-आब-ए-रवाँ सुनता हूँ ये सरगोशियाँ कैसी
सुकूनत किस की है और आस्ताँ के उस तरफ़ क्या है

समझते आ रहे थे जिस ख़ला को शहर-ए-गुम-गश्ता
वो शय क्या है ख़ला-ए-बे-कराँ के उस तरफ़ क्या है

नहीं खुलता कि आख़िर ये तिलिस्माती तमाशा सा
ज़मीं के इस तरफ़ और आसमाँ के उस तरफ़ क्या है
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Ejaz Gul

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