Yawar Azeem

Yawar Azeem

@yawar-azeem

Yawar Azeem shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Yawar Azeem's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
तेवर तुम्हारे देख कर आधा सुख़न करूँ
वर्ना मैं चाहता हूँ ज़ियादा सुख़न करूँ

मुझ को मिरी ग़ज़ल का चमकना पसंद है
पूरा करूँ ये नेक इरादा सुख़न करूँ

ख़ामोशी दब न जाए मआ'नी के बोझ से
आहिस्ता उस की पुश्त पे लादा सुख़न करूँ

ये कम नुमू चराग़ मुझे देखते रहें
जब बाद-ए-तुंद से सर-ए-जादा सुख़न करूँ

जो बात मेरे दिल में है सब को पता चले
अक्सर ये सोचता हूँ कि सादा सुख़न करूँ

मेरा कमाल ये है बिसात-ए-कमाल पर
शाहों के रू-ब-रू मैं पियादा सुख़न करूँ

मैं इक क़दीम मत्न की सूरत लिखा हुआ
पहनूँ हुरूफ़-ए-नौ का लबादा सुख़न करूँ

ये शायरी है कोई तिजारत नहीं जनाब
तुफ़ है अगर बराए-इफ़ादा सुख़न करूँ

'यावर' मैं कोई शाइ'र-ए-कम-हौसला नहीं
जो देख कर ज़मीन कुशादा सुख़न करूँ
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Yawar Azeem
फ़ज़ा-ए-शहर को वहशत-असर तस्लीम करते हैं
दिलों में छप के बैठा है जो डर तस्लीम करते हैं

हमारे घर की तन्हाई पे पूरा हक़ हमारा है
उसे हम अपने आँगन का शजर तस्लीम करते हैं

जो सच पूछो तो अब वो शय नहीं अपने ठिकाने पर
ये हम हैं जो उसे अब तक इधर तस्लीम करते हैं

मिरी शोरीदगी मुझ को कहीं थमने नहीं देती
भँवर मुझ को ब-ज़ात-ए-ख़ुद भँवर तस्लीम करते हैं

हमारी ज़ात से संजीदगी का ख़ोल उतरा है
ये तेरी दिल-नवाज़ी का असर तस्लीम करते हैं

हम इन महताब चेहरों के जिलौ में घूमने वाले
तिरी यादों को अपना हम-सफ़र तस्लीम करते हैं

वबा जो शहर में फैली है वो रुकने नहीं वाली
समझते हैं हमारे चारागर तस्लीम करते हैं

किसी इंसान से अपनी तबीअ'त मिल नहीं सकती
सब अपने आप को फ़र्रूख़-सियर तस्लीम करते हैं

तिरी क़ुदरत के आगे बस नहीं चलता किसी शय का
तिरे बंदे तिरे मुहताज-ए-दर तस्लीम करते हैं

अजब ज़ौक़-ए-नज़ारा दीदा-ए-पुरनम ने बख़्शा है
ज़िया-ए-अश्क को आब-ए-गुहर तस्लीम करते हैं

मैं अपनी शायरी से मुतमइन होता नहीं 'यावर'
अगरचे मुझ को सब अहल-ए-हुनर तस्लीम करते हैं
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Yawar Azeem
हज़रत-ए-मीर के शागिर्द हैं रूहानी हम
शेर तख़्लीक़ किया करते हैं ला-फ़ानी हम

हम जो दरिया के किनारों पे रहा करते हैं
इश्क़ की मौज में बहते हैं ब-आसानी हम

तेरी शादाबी-ए-ख़ातिर की दुआ करते हैं
जब भी आँचल को तिरे देखते हैं धानी हम

या'नी उस आदमी से कोई हमें मतलब है
बातें हर एक से करते नहीं ला या'नी हम

वक़्त के साथ हर इक चीज़ बदल जाती है
पहले कहते थे सरायकी को मुल्तानी हम

ऐसा लगता है कि सब अपने सिवा जाहिल हैं
बात जब जान लिया करते हैं अनजानी हम

हम तिरे बाल बिखेरेंगे खुले साहिल पर
तेरे हिस्से की तुझे देंगे परेशानी हम

ज़िंदगी ज़ख़्म तो देगी कभी यारों को भी
मुट्ठियाँ भर के करेंगे नमक-अफ़्शानी हम

हम से लड़की कोई इठला के जो बातें कर ले
उसे गुड़िया ही समझ लेते हैं जापानी हम

देख आशिक़ हैं तिरे बाप के नौकर तो नहीं
जो तिरे हुस्न की करते रहें दरबानी हम

सब सितारों से नज़र आज बचा कर 'यावर'
चूम आए हैं कोई चाँद सी पेशानी हम
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Yawar Azeem
मैं रिफ़अ'तों की अनोखी मिसाल होने लगा
ये आसमाँ मिरे काँधों की शाल होने लगा

फ़ज़ाएँ गीतों की फ़ुर्क़त में बाँझ होने लगीं
शजर गिरे तो परिंदों का काल होने लगा

घड़ी घड़ी नई बातों की खोज होने लगी
हमारा अह्द मुजस्सम-सवाल होने लगा

वराए-ए-जिस्म जो कुछ फ़ासले थे मिटने लगे
दिल इस अदा से शरीक-ए-विसाल होने लगा

नज़र के चारों तरफ़ रतजगों की बाढ़ लगी
किसी से ख़्वाब में मिलना मुहाल होने लगा

मैं चाहता था कि दुनिया को तेरे जैसा लगूँ
सो तेरे क़ौल-ओ-अमल की मिसाल होने लगा

ज़माने भर के दुखों से रिहाई मिलने लगी
तिरी नज़र का कोई यर्ग़माल होने लगा

इसे हमारी कोई बद-दुआ' लगे न लगे
ख़ुद इस निज़ाम का चलना मुहाल होने लगा

जो अहल-ए-हर्फ़ थे कम कम ही रह गए 'यावर'
हमारे शहर में क़हत-उर-रिजाल होने लगा
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Yawar Azeem
बना लेता मैं तुझ को हम-सफ़र कुछ साल पहले तक
मगर इस बात से लगता था डर कुछ साल पहले तक

मुझे फ़िक्र-ए-मईशत थी तुझे ख़ौफ़-ए-जुदाई था
अलग थे ज़ाविया-हा-ए-नज़र कुछ साल पहले तक

मैं नादाँ था उसे अपने तसर्रुफ़ में नहीं लाया
बहुत नज़दीक थी शाख़-ए-समर कुछ साल पहले तक

तिरी दरवेश-आँखों का इरादत-मंद बन जाता
तू मुझ को मिल गई होती अगर कुछ साल पहले तक

इन्हें चुन चुन के तेरे इश्क़ का ईंधन बना देता
ये माह-ओ-साल साले थे किधर कुछ साल पहले तक

तिरे गालों के डिम्पल में निगाहें डूब जाती थीं
लहू में रक़्स करते थे भँवर कुछ साल पहले तक

मुझे 'यावर-अज़ीम' अब तक वो आँखें याद आती हैं
मैं उन पलकों के था ज़ेर-ए-असर कुछ साल पहले तक
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Yawar Azeem
जिंस-ए-दिल ले कर भरे बाज़ार तक पहुँचा नहीं
एक तक पहुँचा हूँ मैं दो-चार तक पहुँचा नहीं

मेरे पहलू से गुरेज़ाँ है वो मेरा ख़ुश-बदन
इक हिरन है जो अभी तातार तक पहुँचा नहीं

देखने में कुछ नहीं है वक़्त की ये आब-जू
कोई लेकिन उस नदी के पार तक पहुँचा नहीं

काग़ज़ों पर हम लकीरें खींचते ही रह गए
सिलसिला हर्फ़-ए-अबद-आसार तक पहुँचा नहीं

उस को दश्त-ए-ज़िंदगी में कोई मंज़िल कब मिली
जो ग़ज़ाल-ए-वक़्त की रफ़्तार तक पहुँचा नहीं

कुछ न कुछ वामाँदगाँ को दे पज़ीराई का हक़
ठीक है कोई तिरे मेआ'र तक पहुँचा नहीं

तीरगी की जोंक ने सब पी लिया मेरा लहू
कोई सूरज मेरे ज़ख़्म-ए-तार तक पहुँचा नहीं

यार उस मफ़्तूह लड़की में बला का हुस्न था
में ही बुज़दिल था जो दिल की हार तक पहुँचा नहीं

शायरी को ये शरफ़ मुझ से मिला ‘यावर-अज़ीम’
मैं ग़ज़ल ले कर कभी दरबार तक पहुँचा नहीं
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Yawar Azeem