सोच कर ये चला तेरे घर से
बोझ कुछ तो घटे तेरे सर से
कम असर ज़ख़्म का तभी होगा
जब मिलेगी निगाह दिलबर से
देख क़ातिल भुला चुके हैं हम
जो शिकायत हमें थी खंजर से
वो जिन्हें हम नदीम कहते थे
दर्द देता रहा वो नश्तर से
याद में उसकी खो गए हैं हम
कोई रिश्ता रहा न रहबर से
जाँ किसी अपने पर लुटा दी थी
कोई रिश्ता नहीं है पैकर से
ख़्वाब कुछ यूँ दिखा गया था वो
नींद खुलती थी उसकी झाँझर से
देख मुस्कान मेरे चेहरे की
वो मुझे खा रहा है अंदर से
कौन इस भीड़ में तेरा चेतन
लोग रहते हैं दूर मुज़्तर से
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