फुर्ती पे जैसे चढ़ता है रोज़ खाल का बोझ
मेरे दिमाग़ में है तेरे ख़याल का बोझ
जब तक उरूज पे था ये रंज कुछ नहीं थे
शाने झुके हुए हैं आया ज़वाल का बोझ
कबसे बिगड़ रहा है रिश्तों का ये तवाज़ुन
काँधे पे तेरे पाया इक ग़ैर बाल का बोझ
जो फ़ोन को उठा कर रिश्ता बचा न पाया
कैसे उठाए मेरे वो इंतिक़ाल का बोझ
फिर से कुरेद लेंगे ख़ुद पर निशान उसका
ज़ख़्मों पे डालता है क्यों इंदिमाल का बोझ
तुम उम्र भर बताओ बस हाल चाल मुझको
पहचान ही मिटाती है बोल चाल का बोझ
जिसको पता है रस्ते के बाद कुछ नहीं है
उस पर मुसाफ़िरों की है देख भाल का बोझ
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