हम भी ले सकते थे बदला ज़ुल्म का तलवार से
जंग पर जीती थी हम ने अम्न की गुफ़्तार से
देखने आया था रौनक़ आज मैं बाज़ार की
ग़म का ही कम दाम था सो ले लिया बाज़ार से
रुख़ से पर्दा वो हटा दे तो बनेगी कोई बात
अब इन आँखों को गरज़ है उस के ही दीदार से
थक गया पढ़ पढ़ के मैं ख़बरें सितम की जब्र की
हो गई नफ़रत सी मुझ को आज कल अख़बार से
सब के अब हैं शादमाँ मारे हसद के देख तो
और ये मौक़ा मिला उन को तिरे इंकार से
ख़ाली दामन लेके हम सर को झुकाए हैं खड़े
आज ख़ाली पर न जाएँगे तिरे दरबार से
तीरगी ऐसे जहालत की न हो पाएगी कम
फ़िक्र के सूरज उगाओ ज़ेहन की दीवार से
शर्म से उस की भी आँखें उठ नहीं पाईं थी फिर
फैज़ रुसवा हो के जब निकला था कू-ए-यार से
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