इस उम्र में जवानी ऐसे मचल रही है
हर इक क़दम पे अब तो हसरत बदल रही है
समझा रहा हूँ ख़ुद को पर कब तलक बचूँगा
ये मोम सी हया अब अंदर पिघल रही है
ख़ामोश सर्द रातें उस पे बयार की चोट
सुन पर गई हथेली ख़्वाहिश भी जल रही है
है नींद भी गँवाई अब चैन भी कहाँ है
ली सुब्ह तक है करवट बस रात टल रही है
कोई तो अब हो अपना जो इन लबों को चूमे
ये जुस्तुजू भी अब तो मुश्किल सँभल रही है
कोई क़रीब आए कुर्बत में तो बुलाए
प्यासी ये आरज़ू है बेकल टहल रही है
हो सब्र मुझ में बेशक है इंतिज़ार मुश्किल
बाहों की है ज़रूरत निय्यत फिसल रही है
ग़फ़लत में है जवानी और ख़ुदकुशी की चाहत
ऐसी ही ज़िंदगी तो सालों से चल रही है
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