जब नज़र मेरी गली वो शख़्स आया शर्म आई
उसने जो देखा मुझे और मुस्कुराया शर्म आई
थाम ली साँसें बहाने से उसे यूँ देख कर जब
पास आ कर आँख से ग़ुस्सा दिखाया शर्म आई
था लगा पहरा ज़माने का मुहल्ले में सखी रे
हर तरफ़ देखा इशारे से बुलाया शर्म आई
बच बचा कर रास्ते पर आगे पीछे चल पड़े हम
फिर सलीक़े से तभी चश्मा हटाया शर्म आई
जो बढ़ी फिर ओर उसके बाल सुलझाते हुए मैं
पाँव अपना खींच कर पीछे सताया शर्म आई
दौड़ कर मैं जल्द पहुँची अपनी खिड़की पर तभी तो
कर बहाने सामने वो छत पे आया शर्म आई
छिप रही थी मैं तो चिलमन में हया से ही लिपट कर
उसने गाकर हाल दिल का जो सुनाया शर्म आई
शाम का मंज़र दिखा जो ख़ुश-मिज़ाजी से भरा था
उसने फिर जो फूँक कर दीया बुझाया शर्म आई
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