यार का ज़िक्र हुआ अहद-ए-सुख़न में जैसे
चाशनी घुल गई हो गुड़ की रसन में जैसे
कभी उठते से सुनो सुब्ह का लहजा उसका
किसी कोयल के सुर-ओ-ताल थकन में जैसे
आशनाई थी तकल्लुफ़ से भरी पहले पहल
बर्क़ उठती थी उसे देख बदन में जैसे
अव्वल अव्वल तो किया उसकी हवस पे तन्क़ीद
निय्यतें पाक बड़ी थी मेरे मन में जैसे
बिलकुल ऐसी ही लकीरें मेरे हाथों पे हैं
उसकी पेशानी पे उभरी थी शिकन में जैसे
जा-ब-जा देख रही उसकी निगाह-ए-सय्याद
चील उड़ती हो कोई नील गगन में जैसे
है गुमाँ उसको भी या सिर्फ़ मुझी को है भरम
कि यहाँ तप रहे हैं लोग जलन में जैसे
रुत खिजाँ की थी मगर गुल सर उठाने लगे हैं
उसकी आमद की ख़बर महकी चमन में जैसे
शेर तो शेर मगर मिसरे भी ऐसे है कि 'नाज़'
अप्सरा है वो पुराण और कथन में जैसे
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