मिरी शाम को मयस्सर यूँ तो आशियाँ नहीं है
जो मैं सर उठा के देखूँ कहाँ आसमाँ नहीं है
मुझे इश्क़ जो हुआ है किसी दर्द की दुआ है
ज़रा गुफ़्तगू तो है पर कोई दास्ताँ नहीं है
जो कुचल के चल रहे हैं गुलों को भी ग़ुॅंचों को भी
वही करते हैं शिकायत यहाँ गुलसिताँ नहीं है
वो जो चुप सी एक औरत तिरा ज़ुल्म सह रही है
किसी फ़र्ज़ की है मारी कोई बेज़बाँ नहीं है
इसी बात का तो डर है यूँ ही ख़ाक हो न जाऊँ
मिरे इश्क़ का अभी तक कोई मेज़बाँ नहीं है
ये जहाँ को भी चला है तेरे दर पे आ के पहुँचा
मेरे ग़म का और कोई यहाँ मेहरबाँ नहीं है
तिरे हिज्र में रवाँ हूँ बना रिंद मैं यहाँ हूँ
तिरे बाद इश्क़ का अब कोई भी मकाँ नहीं है
रह-ए-ज़िंदगी भी वो ही ग़म-ए-ज़िंदगी भी वो ही
खिली धूप है अज़ा की कोई साएबाँ नहीं है
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