इस क़दर उलझी हैं साँसें दूरियाँ कुछ भी नहीं
दिल से वाबस्ता हैं दोनों दरमियाँ कुछ भी नहीं
तीखी नज़रें होंठ शीरीं है बदन नमकीन सा
लुत्फ़ यूँ सारे हैं तुझमें तल्ख़ियाँ कुछ भी नहीं
डूब के देखा है तेरी चश्म-ए-तर में बारहा
है समंदर वो मगर गहराइयाँ कुछ भी नहीं
मूँद ली आँखें तो पाया तुझको मेरे रू-ब-रू
दूरियाँ बेताबियाँ तन्हाइयाँ कुछ भी नहीं
हो मुकम्मल इश्क़ जो चाहोगे उसकी रूह को
उसके फ़ानी हुस्न की रानाइयाँ कुछ भी नहीं
ओ मुसाफ़िर जा कहीं दरयाफ़्त कर ऐसी जगह
हो मोहब्बत ही जहाँ रुस्वाइयाँ कुछ भी नहीं
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