कहकशाँ शम्स और क़मर ही नहीं
यूँ फ़लक पर मिरी नज़र ही नहीं
किसलिए जाएँ यार कू-ए-सनम
जब वहाँ कोई मुंतज़र ही नहीं
मजलिस-ए-हिज्र हो चुकी है बपा
दिल के अन्दर हमें ख़बर ही नहीं
ख़ाक सहरा की छान ने दो मुझे
मैं कहाँ जाऊँ मेरा घर ही नहीं
दिल में बरछी सी गर उतर न सके
ये नज़र फिर नज़र नज़र ही नहीं
ज़िंदगी से मैं थक के बैठ गया
मौत का दिल में यूँ तो डर ही नहीं
बाद-ए-फ़ुर्क़त यक़ीन कर तू मिरा
दिल में अब ख़्वाहिश-ए-सफ़र ही नहीं
शेर-ए-हैदर से जंग कौन करे
लश्कर-ए-शाम में तो नर ही नहीं
कैसे परवाज़ आसमाँ में करें
जिस्म है जिस्म पर तो पर ही नहीं
ज़िंदगी में अगर मगर है मगर
मौत आए अगर मगर ही नहीं
साथ चलता है मेरे अक्स मिरा
क्यों कहूँ कोई हम सफ़र ही नहीं
देख पाएँ वो जिससे ज़ख़्म-ए-जिगर
उनकी आँखों में वो नज़र ही नहीं
क्यों मैं दस्तार का मलाल करूँ
जब मिरे तन पे बाक़ी सर ही नहीं
ख़ाक में मिल चुका है जिस्म मिरा
आप हैं आप को ख़बर ही नहीं
क्यों करेगा शजर की क़द्र कोई
जब शजर पर कहीं समर ही नहीं
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