दूर क्यों बैठी हो तुम पास में आओ पागल
मेरी बन जाओ मुझे अपना बनाओ पागल
मुनकिर-ए-इश्क़ के दिल ख़ूब जलाओ पागल
मेरी नज़रों से निगाहों को मिलाओ पागल
दुनिया वाले सदा रहते हैं मोहब्बत के ख़िलाफ़
दुनिया वालों का ज़रा ख़ौफ़ न खाओ पागल
हम पलट आएँगे फिर इश्क़ की दुनिया में सुनो
इक दफ़ा हमको सदा दिल से लगाओ पागल
क्यों मिटाती हो मेरा नाम किताबों से भला
गर मिटाना ही है तो दिल से मिटाओ पागल
मुंतज़िर बैठे हैं सब एक झलक पाने को
चाँद से चेहरे से ज़ुल्फ़ों को हटाओ पागल
अपने हाथों पे लिखो नाम मेरा मेंहदी से
अपनी आँखों में मेरे ख़्वाब सजाओ पागल
ख़ुद को आग़ोश-ए-मोहब्बत से न महरूम रखो
आओ आग़ोश-ए-मोहब्बत में तो आओ पागल
जितना भूलोगी मैं उतना तुम्हें याद आऊँगा
इसलिए कहता हूँ मत मुझको भुलाओ पागल
उम्र भर जिसपे उतरता रहे उल्फ़त का समर
दिल के आँगन में शजर ऐसा लगाओ पागल
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