हाथ अपना जाते जाते कुछ यूँ झुमा रहा था
जैसे सदा की ख़ातिर वो दूर जा रहा था
होते ही सुब्ह मुझसे माँ पूछने लगी है
कल ख़्वाब में तू रो के किस को बुला रहा था
पहली दफ़ा वो अपने मिलने पे सोचता हूँ
क्या मुझको हो गया था क्यूँ मुस्कुरा रहा था
हम दोनों के मुकम्मल मंसूबे हो न पाए
मैं प्यार कर रहा था वो आज़मा रहा था
मैं जानता हूँ तुमको तुम दूध के धुले हो
वो मैं था जो ख़ुद अपने दिल को दुखा रहा था
अब मान जाता हूँ मैं माज़ी को याद करके
वर्ना किसी से मैं भी बरसों ख़फ़ा रहा था
अब थक गया हूँ सच है लेकिन हाँ सच है ये भी
जी जान मैं लगा के उसको भुला रहा था
कुछ चार साल से ये सूरत है बद्दुआ सी
वर्ना किसी के दिल की मैं भी दुआ रहा था
कल शब मुशा'इरे में रोने लगा ‘सफ़र’ क्यूँ
जो भी हो वजह हमको तो लुत्फ़ आ रहा था
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