कभी गर फ़स्ल क़ब्र-ए-क़ल्ब पर आई - komal selacoti

कभी गर फ़स्ल क़ब्र-ए-क़ल्ब पर आई
खिलेगी बस उदासी और तन्हाई

वहाँ पर घर बनाकर रह रहा हूँ अब
जहाँ पीछे मोहब्बत आगे है खाई

न इक खिड़की है तारीकी-ए-दिल में पर
कहाँ से याद तेरी रौशनी लाई

जिसे तुम डार्क सर्कल बोलते हो दोस्त
वही है ख़्वाब की मायूस परछाई

मिरा ही नाम पढ़कर बद-दुआ भी दी
मिरा ही नाम लेकर तू क़सम खाई

मोहब्बत थी तुझे कैसे कहूँ तू तो
मिरे आगे न शरमाई न घबराई

ख़रीदा इतने सस्ते में बदन सब ने
हुई बाज़ार-ए-दिल में ख़ूब महँगाई

- komal selacoti
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