न इस क़दर तू देख ख़ुद को इश्तिबाह से
कोई नहीं यहाँ जो बच सका गुनाह से
हर एक क़िस्म के हैं ग़म मिरे भी पास पर
गुरेज़ कर रहा हूँ मैं मेरी ही आह से
मैं तेरा कुछ नहीं ये तेरे लब कहें मगर
कभी अयाँ हुआ नहीं तिरी निगाह से
मिरी ख़िरद ख़राब कर रही है शायरी
मुझे ख़बर हुई है मेरे ख़ैर-ख़्वाह से
इक आरज़ू हो गर तो हों हज़ार काविशें
किसे मिला है कुछ यहाँ पे सिर्फ़ चाह से
ये बे-कली मिरे बदन को छोड़ती नहीं
कनीज़ कब ख़फ़ा हुई है बादशाह से
ज़वाल उस बशर को रब ने लाज़मी दिया
कभी सँभल सका नहीं जो इंतिबाह से
हुआ है कुछ तो तेरे साथ इश्क़ में जो तू
पनाह माँगता है इश्क़-ए-बे-पनाह से
वफ़ा की अहमियत फिर उस को क्या पता हो 'ज़ान'
सदा जो भागता रहा हो रस्म-ओ-राह से
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