मैं तो अक्सर तन्हाई में बैठे ये सोचूँ
अपनों के होते भी क्या मैं इतना तन्हा हूँ
माना दुख का नाता मुझ से पैहम है लेकिन
कम-अज़-कम ख़ुश रहने की ख़ुश-फ़हमी ही पालूँ
कुछ करने से पहले गर सोचूँ तो क्या ही हो
बेहतर है जो करना है बिन सोचे कर गुज़रूँ
बार अब ज़िम्मेदारी का ढोना है मुझ को भी
मुमकिन है अब मैं भी अपने ख़्वाबों को बेचूँ
इश्क़-ओ-नफ़रत दोनों ही रस्सी के हैं मानिंद
उतना ही आगे जाएँ पीछे जितना खींचूँ
सोचा था दुनिया को खो कर ख़ुद को पा लूँगा
अब ख़ुद को भी खो बैठा हूँ अब मैं क्या पाऊँ
तन मन की इक आज़ारी है ये फ़िक्र-ए-फ़र्दा
वो आज़ारी जिस के दम से ही मैं ऐसा हूँ
गो ख़ुद को रोके रखता हूँ मुस्तक़बिल को सोच
पर उड़ने का मन करता है जब अम्बर देखूँ
सब वाक़िफ़ हैं हर रस्ते की इक ही मंज़िल है
फिर भी रस्ता चुनने में सब इतना सोचें क्यूँ
जो मुझ को दरिया समझें बुझती है उन की प्यास
जो सहरा समझें मैं उन को प्यासा ही रक्खूँ
बाहर से कामिल जाने है जग सारा मुझ को
'ज़ान' अंदर की वीरानी को बस मैं ही जानूँ
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