शोख़ी-ए-गुल में था गॅंवाया होश
एक काॅंटा चुभा तो आया होश
हर सितम मेरे सामने ही हुआ
मैंने सब जान के दबाया होश
मजनूॅं पागल न था सयाना था
उसने हर एक से छुपाया होश
तुझको देखा तो सारे होश उड़े
जाने कैसे था फिर जताया होश
मैं गिरा फिर खड़ा हुआ चीख़ा
मैं था बेहोश पर दिखाया होश
मैंने दिन भर बुलंद रक्खी ख़ुदी
मैंने हर शाम है लुटाया होश
बेख़ुदी थी बदन में ताब न थी
उससे मिलने को पर जुटाया होश
अम्र ख़ुद-रफ़्तगी में जीते थे
इल्म से फ़िक्र से कमाया होश
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