अगर नफ़रत मिटाना चाहता कब का मिटा देता
मगर फिर ये ज़माना मुझको जीने की दुआ देता
अगर जन्नत मिली होती किसी को दिल दुखाने से
तो फिर अहल-ए-ज़मीं को वो अरे कब का जला देता
पता होता अगर अब के दिवाने ना-समझ हैं तो
पकड़ कर हाथ दोनों को गले से ही लगा देता
कहीं मंज़िल कहीं रस्ता कहीं तेरा मुसाफ़िर है
सफ़र के क़ा'एदे क्या हैं उसे कुछ तो बता देता
तिरी ख़िदमत में जान-ए-मन सदा तय्यार रहते हैं
अगर दिल ही लगाना था तो तू हमको बता देता
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