क़बाएँ बेचने वाले जुराब माँगते हैं
मय-ए-फ़रोश अब उनसे गुलाब माँगते हैं
कमर-ख़मीदा तो उस्ताद बोल कर ख़ुद को
सुना है उनसे गणित की किताब माँगते हैं
शबाबियात से खाली मिसाल दें तो क्या
कि हुस्न वाले तक उनसे शबाब माँगते हैं
अभी-अभी तो नवाज़े हैं जान देकर सब
सिकंदर और दुबारा ख़िताब माँगते हैं
सुना है उनपे मय-ए-कोहना लुटाते हैं
फिर उसके बाद महाजन हिसाब माँगते हैं
सुना है ज़ुल्फ़ की तासीर ऐसी है उनकी
कि सर्दियों में भी सब आब-आब माँगते हैं
निगाह-ए-दोस्त का मेरे कमाल ऐसा है
कि साधू-संत भी उनसे शराब माँगते हैं
कि दूर-दूर तलक भी कहीं न था ऐसा
तुम्हीं को देखके सब आफ़ताब माँगते हैं
वो काम-धाम में ख़त लिखना भूल जाएँ तो
उधर के नामा-बर उनसे जवाब माँगते हैं
गली के बच्चे उन्हें देख लें तो शर्माकर
दबा के दाँत में उँगली कबाब माँगते हैं
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