मौज़ों की तरह खुलकर दड़बा से निकलती हैं
हम जाम लगाते हैं वो आग उगलती हैं
अँगड़ाई तुम्हारी तो क़ारून ख़ज़ाना है
जब हाथ उठाते हो मोहरें सी निकलती हैं
अफ़्लाक ज़मीं छोड़ो परियाँ भी मुलाज़िम हैं
नहलाती तो हैं ही फिर कपड़े भी बदलती हैं
जिस रोज़ अगर जाऊँ घर हाथ पसारे मैं
फिर ख़ूब झगड़ती हैं मुश्किल से बहलती हैं
हम बाम-ए-फ़लक उनको जिस रोज़ बुलाते हैं
तो ख़ूब सताती हैं आवाज़ बदलती हैं
हम ग़म के अँधेरे में जब घर से निकलते हैं
गर्दिश की तरह ख़ुशियाँ फिर साथ में चलती हैं
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