मुझे बाहों में खिलाते हैं तिरे शहर के लोग
और पागल भी बताते हैं तिरे शहर के लोग
कि मुझे अहल-ए-वतन अहल-ए-वरा कहते हैं
उँगलियाँ फिर भी उठाते हैं तिरे शहर के लोग
रोज़-ए-ख़ुश की तो कोई बात नहीं है जानाँ
शब-ए-ग़म में भी सताते हैं तिरे शहर के लोग
हाँ सनम जब भी गुज़रता हूँ तिरी गलियों से
तिरा दीवाना बताते हैं तिरे शहर के लोग
जान से ज़्यादा मुझे प्यार भी करते हैं और
खरी खोटी भी सुनाते हैं तिरे शहर के लोग
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