पढ़-लिख गए मगर किसी क़ाबिल नहीं हुए
मेरे वतन के लोग अभी 'आक़िल नहीं हुए
मारे लताड़े फिर रहे सारे जहान में
लेकिन हमारी बज़्म में शामिल नहीं हुए
जो ज़िंदगी के तौर तरीक़े को पढ़ सको
तुम लोग इतने तो अभी क़ाबिल नहीं हुए
डंडे से हाँकते हो सभी को जब एक ही
मय्यत में क्यूँ फ़क़ीर की शामिल नहीं हुए
सबको जब इक निगाह से ही देखते हो तुम
चौखट पे क्यूँ चमार की दाख़िल नहीं हुए
मय्यत में आसमान ज़मीं सब शरीक थे
दैर-ओ-हरम के लोग ही शामिल नहीं हुए
घुसते हैं झोपड़े में तो छाती को तानकर
पर काख़-ए-उमरा में कभी दाख़िल नहीं हुए
हम जैसे हर फ़क़ीर की क़िस्मत सँवार दो
बेकार में तुम इतने भी कामिल नहीं हुए
ख़ुशियाँ लुटा कर आ रहे सारे जहान में
कुछ ग़म थे ख़ुश-नसीब से हासिल नहीं हुए
As you were reading Shayari by Prashant Kumar
our suggestion based on Prashant Kumar
As you were reading undefined Shayari