सभी उँगलियाँ यूँ उठाने लगे हैं
कि जैसे कमा कर खिलाने लगे हैं
हमें इस तरह देखना बंद कर दे
ज़माने की नज़रों में आने लगे हैं
वही लोग हैं ग़ौर से देख इनको
जो दुश्मन को ख़ेमा दिखाने लगे हैं
उसे देखकर सबको क्या हो गया है
जो ख़ातून से जी चुराने लगे हैं
अभी आके बैठा हूँ बिल्कुल वहीं से
मगर वो तो फिर से बुलाने लगे हैं
मिरा हाल बे-लफ्ज़ सा लग रहा क्या
सुख़न-वर क़लम को चबाने लगे हैं
ग़ज़ालाँ बचे हैं निगाहों से उनकी
ये इंसान तो सब ठिकाने लगे हैं
रुलाने ही वाला मिला जो मिला वो
यही सोच कर मुस्कुराने लगे हैं
कमर ज़ेर-ए-नाफ़ आजकल देखने को
वो सूराख़ घर में बनाने लगे हैं
अरे दें तो किसको दें इल्ज़ाम ऐसे
सभी ख़ुद को 'आबिद बताने लगे हैं
उसे देखने को अरे शेर भी अब
सुना है कि सर्कस से आने लगे हैं
ज़ियादा न देखो सभी हुस्न वाले
जिधर देख लो भाव खाने लगे हैं
भरी अंजुमन में शराबी कबाबी
न जाने वो क्या-क्या बताने लगे हैं
मिरी जाँ का सौदा तुम्हीं ने किया है
सभी तुम पे उँगली उठाने लगे हैं
मुझे रोज़ घर से भगाते रहे जो
मिरा आशियाना सजाने लगे हैं
बहुत देर कर दी है आने में तुमने
जनाज़ा मिरा सब उठाने लगे हैं
मिरे झोपड़े में ही बरसात होगी
ये बादल इधर को ही आने लगे हैं
मिरी बात मानो जहाँ छोड़ दो अब
सभी दोष तुम पर ही आने लगे हैं
मैं जिनकी मोहब्बत का क़ाइल रहा हूँ
सुना है वो नफ़रत सिखाने लगे हैं
किसी बात का मत बुरा मान जाना
बस ऐसे ही तुमको चिढ़ाने लगे हैं
उन्हें इस सफ़र की भनक लग गई क्या
जो राहों में काँटे बिछाने लगे हैं
हिफ़ाज़त में जिनकी लुटा ज़िंदगी दी
वही हमको सस्ता बताने लगे हैं
तुम्हारी ही मर्ज़ी के मालिक हैं हम तो
सभी हुक्म सर पे उठाने लगे हैं
कोई बात तो है सभी लोग मिलकर
मुझे अंजुमन से भगाने लगे हैं
मिरे रू-ब-रू मुख़्बिरी करके अब वो
कथा रहबरी की सुनाने लगे हैं
मोहब्बत के क़ाबिल बताते थे ख़ुद को
मगर अब निगाहें चुराने लगे हैं
कभी रोना-धोना कभी मुस्कुराना
वो लम्हें बहुत याद आने लगे हैं
रहा पास जब तक क़दर ही न जानी
अब आँसू लहद पर बहाने लगे हैं
जहाँ चाहे रो देते थे बचपने में
मगर अब जगह बुक कराने लगे हैं
न जाने वो क्यूँ आब-दीदा में मेरे
कि पूछा न कुछ बस नहाने लगे हैं
ख़ुदा जल्द कर फ़ैसला ज़िंदगी का
अरे यार हम तंग आने लगे हैं
मुझी से थी रंजिश ज़माने में उनको
मिरा झोपड़ा भी जलाने लगे हैं
ख़ता कुछ नहीं है मगर लोग फिर भी
ख़ता-वार मुझको बताने लगे हैं
न करना निगाहों से अब दूर कोई
सभी के दिलों में समाने लगे हैं
बिना बात के ही तिरी अंजुमन में
मुझे हुस्न वाले बुलाने लगे हैं
मिरा झोपड़ा ख़ाक होगा यक़ीनन
इधर को ही तूफ़ान आने लगे हैं
कोई भी मोहब्बत के क़ाबिल नहीं है
वो ख़ुद बे-वफ़ा हैं बताने लगे हैं
हमीं ने किया 'आलिम-ए-बा-अमल और
हमीं में वो ख़ामी गिनाने लगे हैं
फ़रिश्ते भी करते हैं तुमसे मुहब्बत
सुना है गली में भी आने लगे हैं
निगाहों से सूखी हुई शाख़ पर भी
बहुत ख़ूब-रू फूल आने लगे हैं
जिन्हें हर्फ़ भी आता जाता नहीं है
वो सरकार ख़ुद की बनाने लगे हैं
किसी ने सुना ही नहीं दर्द-ए-पैहम
सो अब मन ही मन गुनगुनाने लगे हैं
गली में नज़र क्यूँ नहीं आता कोई
अरे सब के सब ही ठिकाने लगे हैं
तुम्हारी अदाओं के मारे हुए थे
सँवरने में हमको ज़माने लगे हैं
हँसाने का वादा किया था सभी ने
मगर सब के सब ही रुलाने लगे हैं
As you were reading Shayari by Prashant Kumar
our suggestion based on Prashant Kumar
As you were reading undefined Shayari