क्या सभी रस्म मोहब्बत की निभा लोगे तुम - Prashant Kumar

क्या सभी रस्म मोहब्बत की निभा लोगे तुम
ज़िंदगी-भर को मुझे अपना बना लोगे तुम

गुल-ए-नसरीन हो तुम और मैं टूटा सा चराग़
बुझ ही जाने दो अरे हाथ जला लोगे तुम

तलब उट्ठी है खुलेआम तुम्हें प्यार करूँ
सो ज़रा देर को दिल मुझसे लगा लोगे तुम

इसलिए तुमसे मैं नाराज़ नहीं होता हूँ
मुझे मालूम है फिर घर से उठा लोगे तुम

बिन तुम्हारे कि मिरी साँस अधूरी सी है
सो ज़रा देर को साँसों में बसा लोगे तुम

चाहता हूँ मैं बदलना ये तुम्हारे कपड़े
क्या ज़रा देर निगाहों को झुका लोगे तुम

- Prashant Kumar
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