ज़मज़मा नाला-ए-बुलबुल ठहरे
मैं जो फ़रियाद करूँ ग़ुल ठहरे
नग़्मा-ए-कुन के करिश्मे देखो
कहीं क़ुम क़ुम कहीं क़ुलक़ुल ठहरे
जाल में कातिब-ए-आमाल फँसें
दोश पर आ के जो काकुल ठहरे
रात दिन रहती है गर्दिश उन को
चाँद सूरज क़दह-ए-मुल ठहरे
मेरा कहना तिरा सुनना मालूम
जुम्बिश-ए-लब ही अगर गुल ठहरे
जान कर भी वो न जानें मुझ को
आरिफ़ाना ही तजाहुल ठहरे
आशिक़ी में ये तनज़्ज़ुल कैसा
आप हम क्यूँ गुल-ओ-बुलबुल ठहरे
तुझ पे खुल जाए जो राज़-ए-हमा-ऊस्त
फ़लसफ़ी दूर ओ तसलसुल ठहरे
आँख से आँख में पैग़ाम आए
गर निगाहों का तवस्सुल ठहरे
खुल गई बे-हमगी बा-हमगी
कुल मैं जब महव हुए कुल ठहरे
दिल से दिल बात करे आँख से आँख
आशिक़ी का जो तवस्सुल ठहरे
क्यूँ न फ़िरदौस में जाए 'माइल'
जब मोहम्मद का तवस्सुल ठहरे
Our suggestion based on your choice
As you were reading Shayari by Ahmad Husain Mail
our suggestion based on Ahmad Husain Mail
As you were reading Miscellaneous Shayari