जो ये कहता था मोहब्बत के बिना कुछ भी नहीं
उसकी नज़रों में मोहब्बत सा दिखा कुछ भी नहीं
जिसकी खा़तिर मैं ख़ुशी से हुआ इतना बर्बाद
वो समझता है के मुझ से तो नफा़ कुछ भी नहीं
ले गई मुझ से चुरा के मुझे वो साथ अपने
उसकी यादों के सिवा मुझमें रहा कुछ भी नहीं
दिल से चीख़ूँ के ज़बाँ से भला क्या फ़ायदा हो
उसके नज़दीक मोहब्बत की सदा कुछ भी नहीं
उसके आने से ही उठती थी बहारों में महेक
बिना उसके तो मिरी बाद-ए-सबा कुछ भी नहीं
जिसके होने से मयस्सर था मुझे सारा जहांँ
वो गई क्या के मिरे पास बचा कुछ भी नहीं
एक पल के लिए वो रुक भी अगर जाए तो
ज़िन्दगी फिर मिरी इक पल के सिवा कुछ भी नहीं
जो करे है तो तड़पता फिरे है हिज्र में बस
सच कहें 'फ़ैज़' मोहब्बत में रखा कुछ भी नहीं
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