बड़ी मेहनत है की मैंने उसे फिर भूल जाने में
मोहब्बत छोड़ आया मैं फरेबी के ज़माने में
लिखे हैं शेर उसकी याद में खाली घरौंदे में
रही है मुफ़्लिसी ही साथ मेरे आशियाने में
उसे पहचानने के वास्ते मुड़ के तके नैना
जिसे अब शर्म आती है मुझे अपना बताने में
अकेले तीरगी-ए-शब मिटा देता जहाँ भर के
अगर बाज़ार में माचिस मिले जो चार आने में
कभी तो रौशनी मुझ पे ख़ुदाया ख़ूब डालेगा
ख़ुदा को वक़्त लगता है नया सूरज बनाने में
अकेला शायरी करता पिता के बाद घर में मैं
घुटा करता गँवा देता कला जो मैं कमाने में
भरोसा है मुझे उस पर कभी ईमान डोलेगा
उसी के हाथ कापेंगे मेरा नंबर मिलाने में
बिछड़ के आज तक मैं आशिक़ी कर ही नहीं पाया
समय लगता नहीं महबूब भी उनको पटाने में
Read Full