जिस दिन से तुझे देखा है अग़्यार के हमराह
सीने से निकलती है तो बस आह फ़क़त आह
उम्मीद-ए-करम तुझ से करें भी तो करें क्या
जो चश्म-ए करम थी वो हुई जाती है जाँ-काह
कहने को तो है हुस्न भी इन्साफ़ का क़ाइल
ये सच है तो फिर चाहने वालों को कभी चाह
मैं ख़ाक का पुतला हूँ तू मरमर का सनम है
मैं तुझसे शनासा हूँ न तू मुझसे है आगाह
गर्मी भी है ठंडक भी तलातुम भी सुकूँ भी
क्या जानिए तू अस्ल में ख़ुर्शीद है या माह
हम राह-ए-मुहब्बत के मुसाफ़िर भी अजब हैं
मंज़िल थी बहुत पास मगर भूल गए राह
हम तेरे सिवा और किसी बुत को तराशें
दुश्मन है कोई जिस ने उड़ाई है ये अफ़वाह
जब ज़िक्र छिड़ा मेरा तो आवाज़ ये आई
इस दौर में ऐसे भी कोई होता है गुमराह
मिसरा ही पढ़ा था कि 'बशर' बोल पड़े सब
ऐ वाह मियाँ वाह मियाँ वाह मियाँ वाह
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