इक तिरा हिज्र मनाने में ज़माने लगे हैं
आँख से अश्क़ बहाने में ज़माने लगे हैं
ज़ख़्म उल्फ़त के भुलाने में ज़माने लगे हैं
ख़्वाब आँखों में सजाने में ज़माने लगे हैं
इन डरे सहमे हुए ख़ौफ़-ज़दा लोगों में
शम'-ए-उम्मीद जलाने में ज़माने लगे हैं
झुर्रियाँ चेहरे पे ऐसी कि मुसव्विर को भी
मेरी तस्वीर बनाने में ज़माने लगे हैं
कितने ही ज़ख़्म निहाँ हैं मिरे इस दिल में मगर
हमको इक ज़ख़्म छुपाने में ज़माने लगे हैं
वो हसीं चेहरा वो रुख़्सार वो दिलकश आँखें
वो ख़द-ओ-ख़ाल भुलाने में ज़माने लगे हैं
एक चेहरा जो 'बशर' आँखों से हटता ही नहीं
उसकी तस्वीर बनाने में ज़माने लगे हैं
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