कितने भी राह में हों ख़तर जाना चाहिए
हो जाए जब ज़रूरी सफ़र जाना चाहिए
मंज़िल की है तलब तो बहानों से क्या ग़रज़
कोई न हमसफ़र हो मगर जाना चाहिए
ऐसे क़दम उठाओ कि ज़ंजीर टूट जाए
दार-ओ-रसन को चाप से डर जाना चाहिए
गुलशन के कार-ओ-बार से फ़ुर्सत मिले तो फिर
सहरा में भी बराए-सफ़र जाना चाहिए
क्यूँकर शिकस्ता दिल में भी सालिम है शक्ल-ए-यार
शीशे की तरह अक्स बिखर जाना चाहिए
क़ातिल को ले रहा है जो अपनी पनाह में
इल्ज़ाम-ए-क़त्ल उसके ही सर जाना चाहिए
दामन भी तार-तार है सर भी लहू-लुहान
दरिया जुनूँ का अब तो उतर जाना चाहिए
ऐ वक़्त तेरा काम है रहना रवाँ मगर
कोई पुकार ले तो ठहर जाना चाहिए
ढलने लगी है रात भी तारे भी छुप गए
अब तो 'बशर' को लौट के घर जाना चाहिए
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