न ऐसी अब ज़रा सी भी ख़ता हो - DILBAR

न ऐसी अब ज़रा सी भी ख़ता हो
कि दिल कोई वजह मेरी दुखा हो

रज़ा में तेरी मैं जीवन गुजारूँ
न रिश्ता कोई शिकवों से मेरा हो

न बोलूॅं बोल मैं कड़वे किसी से
मुहब्बत ही मेरा बस राबता हो

बसाऍं मिलके अब इक ऐसी दुनिया
न उल्फ़त की जहाँ पर इंतिहा हो

भला मंज़िल वो राही पाए कैसे
क़दम दो जो नहीं अब तक चला हो

न फिर वो डगमगाता ज़िन्दगी में
ख़ुदा जिस भी बशर का आसरा हो

है दुनिया झुकती उसके आगे दिलबर
नबी के दर पे आकर जो झुका हो

- DILBAR
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