कहूँ कुछ अगर हो इजाज़त
ख़ुदा झूठा और झूठी जन्नत
हमेशा दिल अपने की करना
ग़ुलामी है या बादशाहत
बराबर किए टुकड़े दिल के
की है नाम सब के वसिय्यत
तुझे माँग लेता ख़ुदा से
नहीं माँगने की है आदत
हुआ था कभी इश्क़ मुझ को
कई दिन रही सर ये आफ़त
मिला बाद मर कर मुनाफ़ा
लगी ज़िंदगी बन के लागत
ख़ुदा भी बनाया गया मैं
न पूरी हुई फिर भी मन्नत
मेरी याद आती नहीं क्यूँ
हुई ख़त्म मेरी ज़रूरत ?
है घर जेल या जेल है घर
वही चार दीवारें और छत
तेरी फ़ोटो है वॉलपेपर
नहीं फ़ोन की है मुझे लत
नहीं फ़ोन बदला है अब तक
लिखे थे इसी से तुझे ख़त
जी मैंने भी कर ली है शादी
है अफ़सुर्दगी मेरी औरत
As you were reading Shayari by KUNAL
our suggestion based on KUNAL
As you were reading undefined Shayari