कहूँ कुछ अगर हो इजाज़त

  - KUNAL

कहूँ कुछ अगर हो इजाज़त
ख़ुदा झूठा और झूठी जन्नत

हमेशा दिल अपने की करना
ग़ुलामी है या बादशाहत

बराबर किए टुकड़े दिल के
की है नाम सब के वसिय्यत

तुझे माँग लेता ख़ुदा से
नहीं माँगने की है आदत

हुआ था कभी इश्क़ मुझ को
कई दिन रही सर ये आफ़त

मिला बाद मर कर मुनाफ़ा
लगी ज़िंदगी बन के लागत

ख़ुदा भी बनाया गया मैं
न पूरी हुई फिर भी मन्नत

मेरी याद आती नहीं क्यूँ
हुई ख़त्म मेरी ज़रूरत ?

है घर जेल या जेल है घर
वही चार दीवारें और छत

तेरी फ़ोटो है वॉलपेपर
नहीं फ़ोन की है मुझे लत

नहीं फ़ोन बदला है अब तक
लिखे थे इसी से तुझे ख़त

जी मैंने भी कर ली है शादी
है अफ़सुर्दगी मेरी औरत

  - KUNAL

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