यूँ ही ऐसे आ मेरी ज़िंदगी में मुझे ख़बर कोई भी न हो
तेरे ही सिवा कोई दूसरा कभी हम-सफ़र कोई भी न हो
न फ़िराक़ सी कोई शाम हो न बुझा बुझा ही चराग़ ही
तेरे हिज्र में जो जिया जले तो तभी सहर कोई भी न हो
कभी दोस्ती लगे इश्क़ से भी बड़ी ख़याल से और ही
रहे दोस्त साथ तो आँधियों से भी फिर असर कोई भी न हो
न ही तुम किसी से भी फ़ासलें ही रखा करो मेरे हम-नवा
यूँ ही कश्मकश ही अगर रहे तो गुज़र बसर कोई भी न हो
यूँ घुला मिला करो ज़िंदगी में सभी से यार अदब से ही
कि हर एक के ही मिज़ाज से ही बुरी नज़र कोई भी न हो
कभी वक़्त हम पे यूँ आए है कि जुदा हुए सभी से हमीं
कोई राह दूर दिखे जहाॅं पे ही रहगुज़र कोई भी न हो
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