वो शख़्स मेरे दिल से कब का चला गया
जैसे के जिस्म से ये साया चला गया
पत्तों की सरसराहट से ऐसा लगा मुझे
वो आया मेरे पास में बैठा चला गया
दरिया की मछलियां भी मुझे चाहने लगी
इक मर्तबा वो साथ मेरे क्या चला गया
अब पास से भी वो नज़र आता नहीं मुझे
वो दूर नज़रों से कुछ ऐसा चला गया
हँस हँस के जिसपे वार दी खुशियां जहान की
फिर उसके बाद ख़ुद पे मैं हँसता चला गया
ये सोचा हाथ उसका मैं थाम लूं मगर
कमबख्त मेरे हाथ से मौका चला गया
वो कर रहा था हँस के वाद ए वफ़ा की बात
हर शख़्स महफिलों से उठता चला गया
माँ ने दुआएं देकर "आलम" किया विदा
हर मुश्किलों से ख़ूब मैं बचता चला गया
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