ये दौलत क्यों सदा ज़रदार के हिस्से में रहती है
ग़रीबी क्यों भला हम जैसों के खाते में रहती है
न वो चाँदी में रहती है न ही सोने में रहती है
ग़रीबी क्यों भला हम जैसों के खाते में रहती है
शराफ़त नाम की भी आजकल ढूँढे नहीं मिलती
यहाँ तहज़ीब सारी ही फ़क़त शजरे में रहती है
अज़ल से प्यार का दुश्मन रहा है ये ज़माना क्यों
मोहब्बत भी हमेशा इसलिए चर्चे में रहती है
बहकती है जवानी मुफ़्त में देती है जाँ अपनी
ख़राबी बस यही तो इश्क़ के नश्शे में रहती है
कभी घबरा न तू नाकामियों से ज़ीस्त की अपनी
छुपी ये क़ामयाबी तो इसी मलबे में रहती है
कहाँ महफ़ूज है कोई यहाँ दहशत के आलम में
हमारी ज़ीस्त हर पल क्यों यहाँ ख़तरे में रहती है
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