अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को
मैं हूं तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझ को
मैं जो कांटा हूं तो चल मुझ से बचा कर दामन
मैं हूंगर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझ को
तर्क-ए-उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझ को
मुझ से तू पूछने आया है वफ़ा के मा'नी
ये तिरी सादा-दिली मार न डाले मुझ को
मैं समुंदर भी हूं मोती भी हूं ग़ोता-ज़न भी
कोई भी नाम मिरा ले के बुला ले मुझ को
तू ने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुद-परस्ती में कहीं तू न गंवा ले मुझ को
बांध कर संग-ए-वफ़ा कर दिया तू ने ग़र्क़ाब
कौन ऐसा है जो अब ढूंढ़ निकाले मुझ को
ख़ुद को मैं बांट न डालूं कहीं दामन दामन
कर दिया तू ने अगर मेरे हवाले मुझ को
मैं खुले दर के किसी घर का हूं सामां प्यारे
तू दबे-पांव कभी आ के चुरा ले मुझ को
कल की बात और है मैं अब सा रहूं या न रहूं
जितना जी चाहे तिरा आज सता ले मुझ को
वादा फिर वादा है मैं ज़हर भी पी जाऊं 'क़तील'
शर्त ये है कोई बांहों में संभाले मुझ को
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