हैं आँखें बंद फिर भी ताश से इक्का निकालेंगे
कहीं से भी मगर मंज़िल का हम रस्ता निकालेंगे
अगर ख़ुशियाँ हमारी माँ के ख़ातिर हो हमें लाना
कमाया अब तलक हर एक वो सिक्का निकालेंगे
भले रक्खा सजाकर घर को हथियारों से उसने पर
हुनर से हम वहीं से एक गुलदस्ता निकालेंगे
खुले स्कूल जो चेहरों को भी पढ़ना सिखाए तो
पुराना इक दफ़ा फिर हम वही बस्ता निकालेंगे
अधूरा है तुम्हारा तन कमी बस दिल की है इसमें
कहोगे तो हमारे तन से ये पुर्जा निकालेंगे
बनेगा घर मुहब्बत का जो टूटेगा न जीवन भर
ये होगा तब अगर मिल कर सही नक्शा निकालेंगे
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