मेरे ज़ख़्मों की सरगम को हवाओं ने समेटा है
कोई छू कर गुज़रता है उसे बरखा समझता है
मैं तुमको कह तो देती ग़म मेरा, मेरी ये बेचैनी
मगर तुम में, यहाँ सब में मुझे अब फ़र्क लगता है
जो तन्हा है वो तन्हाई के क़िस्सों को नहीं गाता
जो महशर में दबा जज़्बों को बैठा है वो तन्हा है
~साक्षी सारस्वत
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