मत कहो राज़-ए-गुफ़्तगू बेक़सों को सुनाए क्यूँ
बंद लबों की सादगी चश्म में भर न आए क्यूँ
हम ने बुना है ख़्वाब को साज़-ए-सितम से बारहा
अब जो वो टूट जाए तो शोर ये फिर उठाए क्यूँ
शहर था गर्द-ए-वहम में ज़िक्र था नाम-ए-बे-सबब
हम को वहाँ भुला दिया याद हमीं फिर आए क्यूँ
रंग-ए-फ़िराक़ ओ शोला-ए-ज़ौक़ ओ अज़ाब-ए-बे-सबात
दिल को लगे जो आग वो अश्क से फिर बुझाए क्यूँ
हम जो बचे थे वक़्त से ख़ुद से मगर न बच सके
ज़ख़्म अगर हैं अपने तो और कोई दिखाए क्यूँ
रूह पे लिख दिया गया हर्फ़-ए-गुनाह बे-वजह
हम ने जो ख़्वाब देखा था अब वो ख़ुदा बनाए क्यूँ
'देव' ने राख चूम ली शम्स को फिर जलाया क्यूँ
तख़्त-ए-वजूद पर था जो ख़्वाब में भी न आए क्यूँ
हुस्न में थे गुनाह भी इश्क़ में तर्जुमा भी था
हम को ही इल्म था मगर हम ही समझ न पाए क्यूँ
ख़ाक है उस सलीब की जोश-ए-दुआ से दूर है
जो भी मिला ख़ुदा वहाँ लौट के भी न आए क्यूँ
'देव' ने ख़ून से लिखी तर्ज़-ए-सुख़न की दास्ताँ
अब कोई और लिख सके ऐसा फ़साना आए क्यूँ
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