Jabbar Wasif

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Jabbar Wasif shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Jabbar Wasif's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
मुझे कोई ऐसी ग़ज़ल सुना कि मैं रो पड़ूँ
ज़रा जय जय विन्ती के सुर लगा कि मैं रो पड़ूँ

मिरे ज़ब्त तुझ को मिरी तरफ़ से ये इज़्न है
मिरा आज इतना तो दिल दुखा कि मैं रो पड़ूँ

ये जो ख़ाक ओढ़ के सो रही है मिरी हँसी
यूँ बिलक बिलक के उसे जगा कि मैं रो पड़ूँ

मिरे ख़ुद-कुशी के ख़याल पर मिरे हाल पर
मिरी बेबसी मुझे यूँ हँसा कि मैं रो पड़ूँ

तुझे इल्म है मिरा कोई तेरे सिवा नहीं
मुझे आ के ऐसे गले लगा कि मैं रो पड़ूँ

मैं जहान-ए-सुर्ख़ में सब्ज़-पोश चराग़ हूँ
मिरी लौ को इतना न आज़मा कि मैं रो पड़ूँ

मिरा बख़्त मेरा नसीब तुझ से छुपा नहीं
मुझे दे तू ऐसी कोई दुआ कि मैं रो पड़ूँ

ये जो इश्क़ की सियह शाल है ये वबाल है
उसे यूँ न देख के मुस्कुरा कि मैं रो पड़ूँ

मिरी आँखें अब भी तिरी गली में हैं ख़ेमा-ज़न
फ़क़त एक बार उन्हें देख जा कि मैं रो पड़ूँ

मिरा नाम तू ने रखा था 'वासिफ़'-ए-ना-तमाम
इसी नाम से मुझे फिर बुला कि मैं रो पड़ूँ
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Jabbar Wasif
जो नबातात-ओ-जमादात पे शक करते हैं
ऐ ख़ुदा तेरे कमालात पे शक करते हैं

वो जो कहते हैं धमाके से जहाँ ख़ल्क़ हुआ
दर-हक़ीक़त वो समावात पे शक करते हैं

मैं भी बचपन में तफ़क्कुर पे यक़ीं रखता था
मेरे बच्चे भी रिवायात पे शक करते हैं

मैं इसी शहर में आँसू लिए फिरता हूँ जहाँ
पेड़ चिड़ियों की मुनाजात पे शक करते हैं

अपने हिस्से में वो बे-फ़ैज़ सदी है जिस में
लोग वलियों की करामात पे शक करते हैं

इस लिए हम पे गुज़रती है क़यामत हर दिन
हम क़यामत की अलामात पे शक करते हैं

आप के खेत में उगती है सुनहरी गंदुम
आप क्यों उस की इनायात पे शक करते हैं

जिन को मूसा का पता है न ख़बर तूर की है
ऐसे बद-बख़्त भी तौरात पे शक करते हैं

इश्क़ की ऐन का तो दश्त में मदफ़न ही नहीं
आशिक़ाँ यूँही ख़राबात पे शक करते हैं

आप झरनों की तिलावत को नहीं सुन सकते
आप फ़ितरत के इशारात पे शक करते हैं

सिर्फ़ शाइ'र ही नहीं हूँ मैं मुसलमान भी हूँ
आप क्यों मेरी इबादात पे शक करते हैं

आप को चाहिए सुक़रात के बारे में पढ़ें
आप 'वासिफ़' के ख़यालात पे शक करते हैं
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Jabbar Wasif
जब्र ने जब मुझे रुस्वा सर-ए-बाज़ार किया
सब्र ने मेरे मुझे साहब-ए-दस्तार किया

मेरी लफ़्ज़ों की इमारत गिरी काम आई मिरे
मेरी ग़ज़लों ने मिरे नाम को मीनार किया

अपने हाथों में कुदूरत की कुदालें ले कर
मेरे अपनों ने मिरी ज़ात को मिस्मार किया

याद जब आया कोई वा'दा-ए-ता'मीर मुझे
मैं ने तब जिस्म की हर पोर को मे'मार किया

और फिर सब्ज़ इशारा हुआ उस पार से जब
मैं ने इक जस्त में दरिया-ए-बला पार किया

आज फिर ख़ाक बहुत रोई लिपट कर मुझ से
आज फिर क़ब्र ने बाबा की मुझे प्यार किया

चाँद ने रात मिरे साथ मिरे दुख बाँटे
सुब्ह सूरज ने भी गिर्या सर-ए-दीवार किया

आग अश्जार को लगने से कई दिन पहले
मैं ने रो रो के परिंदों को ख़बर-दार किया

ऐसा मातम कभी दरिया का न देखा न सुना
जाने किस प्यास ने पानी को अज़ा-दार किया

जब हवा देने लगी ठंडे दिलासे मुझ को
कुछ चराग़ों ने भी अफ़्सोस का इज़हार किया

देख कर जलती हुई झोंपड़ी कल शब 'वासिफ़'
मैं ने सोए हुए दरवेश को बेदार किया
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तमाम शहर तो बे-मेहर नींद सो रहा था
मगर मैं आँखों में नोक-ए-क़लम चुभो रहा था

मैं जानता था मिरे अश्क मरने वाले हैं
मैं जानता था कि जो मेरे साथ हो रहा था

मुझे ख़बर नहीं कब आँसूओं को होश आया
ख़बर हुई तो मैं ज़ार-ओ-क़तार रो रहा था

कुछ इस लिए भी ख़ुदा की मुझे ज़रूरत थी
मैं अपने खेत में गंदुम के बीज बो रहा था

ख़याल आया मुझे जब ख़ुदा बदलने का
मैं अपने अश्कों से हर्फ़-ए-दुआ भिगो रहा था

मुझे जगा दिया जब फज्र के मोअज़्ज़िन ने
दरून-ए-ख़्वाब मैं मस्जिद का सहन धो रहा था

समझ रहा था जिसे मैं भी नूह की कश्ती
उसी का नाख़ुदा लोगों को अब डुबो रहा था

था बा-नसीब भी और बद-नसीब भी 'वासिफ़'
जो पा रहा था किसी को किसी को खो रहा था
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कभी ज़मीन कभी आसमाँ से लड़ता है
अजीब शख़्स है सारे जहाँ से लड़ता है

किसी के इश्क़ की मन्नत का तेल है उस में
इसी लिए तो दिया आस्ताँ से लड़ता है

हमें ये बाँझ बहू बे-निशान कर देगी
ये बात कह के वो बेटे की माँ से लड़ता है

किराएदार की नींद इस क़दर परेशाँ है
वो रोज़ ख़्वाब में मालिक मकाँ से लड़ता है

ये किस के क़र्ज़ का है बोझ मेरी मय्यत पर
ये कौन है जो मिरे ख़ानदाँ से लड़ता है

दुआ है ख़ैर हो उस घर की जिस में रो रो कर
कोई बुज़ुर्ग किसी नौजवाँ से लड़ता है

बस एक ख़ास निशानी है मेरे मदफ़न की
कि इस मकाँ में कोई ला-मकाँ से लड़ता है

बड़े यक़ीन से कुछ बे-यक़ीन माँगते हैं
वो इक यक़ीन जो वहम-ओ-गुमाँ से लड़ता है

अज़ान देता हूँ जब मैं सुख़न की मस्जिद में
हर एक बे-नवा मेरी अज़ाँ से लड़ता है

मैं अपने अहद का 'वासिफ़' हूँ और शाइ'र हूँ
ज़माना किस लिए मुझ ना-तवाँ से लड़ता है
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Jabbar Wasif
मैं वक़्त की आबजू से आगे निकल गया हूँ
सो दहर की हा-ओ-हू से आगे निकल गया हूँ

मैं बे-शरीअ'त तहारतों की तलाश में था
मैं बा-शरीअ'त वुज़ू से आगे निकल गया हूँ

तू जानता है कि मेरा विज्दान वज्द में है
तू जानता है मैं तू से आगे निकल गया हूँ

मैं रक़्स करते हुए तहज्जुद की साअ'तों में
इबादतों के ग़ुलू से आगे निकल गया हूँ

न-जाने किस काएनात में पावँ रख दिए हैं
मैं रात-दिन की नुमू से आगे निकल गया हूँ

अबस हैं सब आलम-ए-तहय्युर मिरी नज़र में
मैं आलम-ए-जुस्तुजू से आगे निकल गया हूँ

मैं इस जहान-ए-क़बा-दरीदा का बख़िया-गर था
मगर मैं कार-ए-रफ़ू से आगे निकल गया हूँ

मुझे नई शक्ल की ज़मीं पर है बात करनी
मैं बैज़वी गुफ़्तुगू से आगे निकल गया हूँ

मिरी अजल की भी मौत ईजाद हो गई है
मैं साँस लेते लहू से आगे निकल गया हूँ

मुझे नहीं अपने रख़्त-ए-हस्ती की फ़िक्र 'वासिफ़'
मैं हस्त की आरज़ू से आगे निकल गया हूँ
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Jabbar Wasif
दयार-ए-दर्द से आया हुआ नहीं लगता
मैं अहल-ए-दिल को सताया हुआ नहीं लगता

मिरा वजूद जहाँ है वहाँ शुहूद नहीं
मैं आ भी जाऊँ तो आया हुआ नहीं लगता

ये बात सच है उसी ने मुझे बनाया है
मगर मैं कुन से बनाया हुआ नहीं लगता

ये बे-हिजाब फ़लक और ये बे-लिबास ज़मीं
मुझे तो कुछ भी छुपाया हुआ नहीं लगता

है बारिशों में मिलावट कि गर्द आँखों में
कोई भी पेड़ नहाया हुआ नहीं लगता

मिरी पलेट में ख़िल्क़त की भूक नाचती है
इसी लिए मुझे खाया हुआ नहीं लगता

मिरी कमर पे लदा है अनाज बच्चों का
वो बोझ है कि उठाया हुआ नहीं लगता

फ़सुर्दा चेहरा शिकस्ता क़दम झुकी नज़रें
ग़रीब बाप कमाया हुआ नहीं लगता

धरी है जिस पे तसल्ली की देगची 'वासिफ़'
मुझे वो चूल्हा जलाया हुआ नहीं लगता
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Jabbar Wasif
वही मुसाफ़िर मुसाफ़िरत का मुझे क़रीना सिखा रहा था
जो अपनी छागल से अपने घोड़े को आप पानी पिला रहा था

दुखों के गारे में हाथ लिथड़े हुए थे मेरे हुनर के लेकिन
मैं रोते रोते भी मुस्कुराता हुआ कोई बुत बना रहा था

कुछ इस लिए भी मिरी सदा पर हर इक समाअ'त को था भरोसा
गुमाँ के सहरा में बैठ कर मैं यक़ीन के गीत गा रहा था

सुना है कल रात मर गया वो बरहना दरवेश झोंपड़ी में
फ़ना के बिस्तर पे जो बक़ा की हरीस गुदड़ी बिछा रहा था

मिरी नज़र में वो तिफ़्ल मस्जिद के पेशवा से भी मोहतरम है
जो एहतिरामन गली से गंदुम के बिखरे दाने उठा रहा था

बहुत मुक़द्दस थे उस सिपाही की दोनों आँखों के सुर्ख़ डोरे
जो सोई मख़्लूक़ की हिफ़ाज़त में ख़्वाब अपने गँवा रहा था

तमाम शब उस के भूके बच्चों ने जाग कर ही गुज़ार दी थी
ख़ुदी के फ़ुटपाथ पर जो ग़ुर्बत थपक थपक कर सुला रहा था

वो मेरी बरसी पे मेरी मय्यत के नाम शाम-ए-ग़ज़ल थी 'वासिफ़'
मैं अपनी तुर्बत में लेटे लेटे कलाम सब को सुना रहा था
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