ऐ अहल-ए-मोहब्बत क्या कहिए क्या चीज़ मोहब्बत होती है
कुछ ग़म की हक़ीक़त होती है कुछ दिल की तबीअ'त होती है
कुल ज़ीस्त अलम ता-ज़ीस्त अलम यक वक़्फ़ा-ए-दम तस्कीन-ए-अलम
सुनते हैं क़यामत आती है जब उस से भी फ़ुर्सत होती है
उफ़ आयत-ए-सजदा हुस्न-ए-अदा जल्वे के लिए पर्दा भी उठा
बेताब जबीं झुक जाती है कुछ ऐसी भी सूरत होती है
कुछ मस्त निगाह-ए-साक़ी है कुल मय में है जो कुछ बाक़ी है
मय-ख़ाने के बाहर कुछ भी नहीं मय-ख़ाने में जन्नत होती है
दुनिया से अलग हो कर 'कैफ़ी' दुनिया से ख़फ़ा दुनिया का गिला
उम्मीद अगर बाक़ी न रहे तब यास में राहत होती है
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