ठहराव तो उसमें था ही नहीं, रुकती थी निकल लिया करती थी
मैं कपड़े बदलते सोचता था, वो मर्द बदल लिया करती थी
मुझे अपने बनाए रास्तों पर भी जूते पहनना पड़ते थे
वो लोगों के सीने पर भी जूते उतार कर चल लिया करती थी
मेरे हाथ ज़बूँ हो जाते थे मेरे चश्मे स्याह हो जाते थे
मैं उसको नक़ाब का कहता था, वो कालिख मल लिया करती थी
उस औरत ने बेज़ार किया, इक बार नहीं सौ बार किया
गानों पे उछल नहीं पाती थी, बातों पे उछल लिया करती थी
तारीक़ महल को शाहज़ादी ने रौशन रक्खा कनीज़ों से
कभी उनको जला लिया करती थी कभी उनसे जल लिया करती थी
आदाब-ए-तिज़ारत से भी ना-वाक़िफ़ थी शेर-ओ-अदब की तरह
मुझे वैसा प्यार नहीं देती थी जैसी ग़ज़ल लिया करती थी
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