Zafar Ali Khan

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Zafar Ali Khan shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Zafar Ali Khan's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Nazm
पहुँचता है हर इक मय-कश के आगे दौर-ए-जाम उस का
किसी को तिश्ना-लब रखता नहीं है लुत्फ़-ए-आम उस का
गवाही दे रही है उस की यकताई पे ज़ात उस की
दुई के नक़्श सब झूटे हैं सच्चा एक नाम उस का
हर इक ज़र्रा फ़ज़ा का दास्तान उस की सुनाता है
हर इक झोंका हवा का आ के देता है पयाम उस का
मैं उस को का'बा-ओ-बुत-ख़ाना में क्यूँ ढूँडने निकलूँ
मिरे टूटे हुए दिल ही के अंदर है क़याम उस का
मिरी उफ़्ताद की भी मेरे हक़ में उस की रहमत थी
कि गिरते गिरते भी मैं ने लिया दामन है थाम उस का
वो ख़ुद भी बे-निशाँ है ज़ख़्म भी हैं बे-निशाँ उस के
दिया है इस ने जो चरका नहीं है इल्तियाम उस का
न जा उस के तहम्मुल पर कि है अब ढब गिरफ़्त उस की
डर उस की देर-गीरी से कि है सख़्त इंतिक़ाम उस का
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अश्नान करने घर से चले लाला-लाल-चंद
और आगे आगे लाला के उन की बहू गई
पूछा जो मैं ने लाला लल्लाइन कहाँ गईं
नीची नज़र से कहने लगे वो भी चू गई
मैं ने दिया जवाब उन्हें अज़-रह-ए-मज़ाक़
क्या वो भी कोई छत थी कि बारिश से चू गई
कहने लगे कि आप भी हैं मस्ख़रे अजब
अब तक भी आप से न तमस्ख़ुर की ख़ू गई
चू होशियार पर मैं नदी से है ये मुराद
बीबी तमीज़ भी हैं वहीं करने वुज़ू गई
मैं ने कहा कि चू से अगर है मुराद जू
फिर यूँ कहो कि ता-ब-लब-ए-आब-जू गई
क्यूँ ऐंठें हैं माश के आटे की तरह आप
धोती से आप की नहीं हल्दी की बू गई
लुत्फ़-ए-ज़बाँ से क्या हो सरोकार आप को
दामन को आप के नहीं तहज़ीब छू गई
हिन्दी ने आ के जीम कूचे से बदल दिया
चू आई कोहसार से गुलशन से जू गई
लहजा हुआ दुरुश्त ज़बाँ हो गई करख़्त
लुत्फ़-ए-कलाम-ओ-शिस्तगी-ए-गुफ़्तुगू गई
मा'नी को है गिला कि हुआ बे-हिजाब मैं
शिकवा है लफ़्ज़ को कि मिरी आबरू गई
अफ़्सोस मुल्क में न रही फ़ारसी की क़द्र
मस्ती उड़ी शराब से फूलों की बू गई
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ऐ नुक्ता-वरान-ए-सुख़न-आरा-ओ-सुख़न-संज
ऐ नग़्मा-गिरान-ए-चमनिस्तान-ए-मआफ़ी
माना कि दिल-अफ़रोज़ है अफ़्साना-ए-अज़रा
माना कि दिल-आवेज़ है सलमा की कहानी
माना कि अगर छेड़ हसीनों से चली जाए
कट जाएगा इस मश्ग़ले में अहद-ए-जवानी
गरमाएगा ये हमहमा अफ़्सुर्दा दिलों को
बढ़ जाएगी दरिया-ए-तबीअत की रवानी
माना कि हैं आप अपने ज़माने के 'नज़ीरी'
माना कि हर इक आप में है उर्फ़ी-ए-सानी
माना की हदीस-ए-ख़त-ओ-रुख़्सार के आगे
बेकार है मश्शाइयों की फ़ल्सफ़ा-दानी
माना कि यही ज़ुल्फ़ ओ ख़त-ओ-ख़ाल की रूदाद
है माया-ए-गुल-कारी-ए-ऐवान-ए-मआफ़ी
लेकिन कभी इस बात को भी आप ने सोचा
ये आप की तक़्वीम है सदियों की पुरानी
माशूक़ नए बज़्म नई रंग नया है
पैदा नए ख़ामे हुए हैं और नए 'मानी'
मिज़्गाँ की सिनाँ के एवज़ अब सुनती है महफ़िल
काँटों की कथा बरहना-पाई की ज़बानी
लज़्ज़त वो कहाँ लाल-ए-लब-ए-यार में है आज
जो दे रही है पेट के भूखों की कहानी
बदला है ज़माना तो बदलिए रविश अपनी
जो क़ौम है बेदार ये है उस की निशानी
ऐ हम-नफ़सो याद रहे ख़ूब ये तुम को
बस्ती नई मशरिक़ में हमीं को है बसानी
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