दिल को मेरे बस यही मलाल है
हिज्र अपने दरमियाँ बहाल है
दिल ये बूढ़ा ग़म से क्यूँ निढाल है
क्या मोहब्बतों का ये ज़वाल है
पगड़ियों से हैं बंधे हुए क़दम
और पगड़ियों का ही ख़याल है
ऐसे घाव दे दिए हैं इश्क़ ने
रूह तक भी ख़ून-ए-दिल से लाल है
ग़म की धुन पे रक़्स करती ज़िन्दगी
धड़कनों का शोर देता ताल है
हाय रुख़ पे माहताब सा है नूर
और उस पे ज़ेर-ए-लब जो ख़ाल है
पी के जाम शेख़ जी बता रहे
क्या है शिर्क और क्या हलाल है
पहले इश्क़ देता है सुकून फिर
लाख तोहमतों का एक जाल है
जान देता है तो दे कोई मगर
किस को यां किसी का अब ख़याल है
ये किधर से आ रहा है माहताब
उस का घर तो जानिब-ए-शुमाल है
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