लगेगी ये झूठी मेरी बात तुमको
कि मैं माँगता हूँ दिन-ओ-रात तुमको
मैं कैसे बताऊँ कि डरता बहुत हूँ
बुरे लग न जाएँ ये जज़्बात तुमको
मैं मिट्टी का बर्तन, तुम्हे कैसे भाता
हिफाज़त की जो होतीं आफा़त तुमको
मुझे तो कहीं भी मयस्सर नहीँ है
दिया है जो मैंने ऐ हज़रात तुमको
कभी भीड़ में क्यूँ नहीँ कहते अपना
बुलानी नहीँ क्या ये बारात तुमको
मिलेंगे ये कहकर कहाँ चल दिए तुम
नहीँ भायी लगती मुलाकात तुमको
कहानी ख़तम चाहती हो यहीं क्या
यहीं क्या, है करनी शुरुआत तुमको
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