तेरे ख़यालों के जंगल को फिर सजाऊँगा
दुबारा इश्क़ में क़िस्मत को आज़माऊँगा
दिखा चुका हूँ इन्हें तेरे हुस्न की रंगत
अब इस से अच्छा इन आँखों को क्या दिखाऊँगा
हथेलियों की लकीरें बनाऊँगा बेहतर
मगर जबीं को शिकन से नहीं सजाऊँगा
ख़ुदा ने गर कभी बनवाया मुझसे आदमी को
तो उसके सीने में मैं दिल नहीं बनाऊँगा
मुझे भी देखनी है इंतिज़ार की आँखें
पलट के आया भी तो देर से ही आऊँगा
तमाम दुनिया मनाए मुहब्बतों के दिन
मैं हिज्र-ज़ाद हूँ बस हिज्र ही मनाऊँगा
जो रोज़ एक ही चेहरा उदास दिखता है
मैं घर में रक्खे सभी आईने हटाऊँगा
बिछड़ते वक़्त यही दुख सता रहा था मुझे
मैं तेरे क़ुर्ब के मौसम कहाँ से लाऊँगा
महीनों बाद मुझे उससे मिलने जाना है
महीनों बाद ही अब बाल भी बनाऊँगा
मुझे भुला के वो आगे निकल चुका है और
मैं सोच में हूँ कि कैसे उसे भुलाऊँगा
मुझे दिया भी है रब ने सुख़न-वरी का हुनर
ब-रोज़-ए-हश्र मैं रब को ग़ज़ल सुनाऊँगा
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