मैं जिधर जाऊँ उधर दुज़्द-ए-कफ़न दिखता है - Prashant Kumar

मैं जिधर जाऊँ उधर दुज़्द-ए-कफ़न दिखता है
हर कलेजे में पड़ा एक रसन दिखता है

ये तिरा जिस्म कि ख़ुशबू का भवन दिखता है
तेरी आँखों में मुझे नील-गगन दिखता है

हम ही हालात के हैं मारे हुए वरना तो
हर कोई अपनी ही मस्ती में मगन दिखता है

कोई मौसम हो पहनता नहीं हूँ कुछ भी मैं
क्यूँकि लत्तों में मिरा पूरा बदन दिखता है

पेप्लम टॉप या कुछ और पहन कर आना
सूट सलवार में तो साफ़ बदन दिखता है

ऐसा लगता है वफ़ा के सभी गुल सूख गए
उजड़ा उजड़ा सा तिरे दिल का चमन दिखता है

जिसे आवाज़ लगाता हूँ नहीं सुनता है
हर कोई याँ तिरी आँखों में मगन दिखता है

ये जो आगे का निवाला भी खिला देते हैं
इन्हीं लोगों में मुझे अपना वतन दिखता है

- Prashant Kumar
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