किसी के हिज्र को ऐसे मना रहे थे हम
घड़ी में वक़्त को उल्टा घुमा रहे थे हम
नहीं था याद सबक़ अपनी ज़िंदगी का हमें
सो इम्तिहान का परचा बना रहे थे हम
किनारे बैठ के आँसू बहा के आए थे
नदी की प्यास को पानी पिला रहे थे हम
किया ये जुर्म कि अपने ही दिल की सुनते थे
यही कहें कि ख़ुद अपनी सज़ा रहे थे हम
हम उस के ज़ुल्म के बढ़ने के इंतिज़ार में थे
तभी तो ज़ब्त की क़ुव्वत बढ़ा रहे थे हम
लगा के एक ठहाका उसी के ज़ेर-ए-असर
बस अपने ज़ख़्म को नीचा दिखा रहे थे हम
ख़ुद अपने आप को शानों पे ले के चलते थे
ख़ुद अपने आप का मातम मना रहे थे हम
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